मन की
हार
ये मैं चंचल है बहुत बड़ा, पर समक्ष सभी के यही खड़ा
मन को वश में जो कर जाये, जीवन में वो कुछ कर जाये
मन पर जिसका अधिकार हुआ, भव सागर वो पार हुआ
मैं इसका एक शिकार हुआ, एक बार नहीं दो बार हुआ
एक बार मैं फिर से हार गया ..........
समझा जिसको अपनी मंजिल, वो निकला न कोई शाहिल
वो निकली एक ऐसी धार, जिससे हुआ मैं तार तार
जान के उसको जान ना पाए, समझा तो समाधान ना आया
लिख डाली एक पाती तब, पर मैंने ये सोचा था कब
वो मेरे लिए एक रार हुआ
एक बार मैं फिर से हार गया .........
दो साल हुए थे इसको, पर मैं समझा ना पाया उसको
फिर एक दिन ऐसा आया, कालेज में विज्ञान समाया
वह नयी कुछ बात हुई, अन्दर अन्दर कुछ बात हुई
आखों ने फिर प्रलय किया, नयनों का अश्रु से मिलन हुआ
फिर आगे से एक वार हुआ
एक बार मैं फिर से हार गया .............
गलती थी मेरी मैं शांत रहा, प्रमाण
जो उनके हाथ हुआ
वो प्रमाण मेरी पाती थी, जो केवल स्वार्थ दिखाती थी
फिर अश्रुओं की जलधार बही
माना मैंने की हार हुई ..........
नजरों में जिनकी हम बैठे थे ,
खुशियों से वो मेरी ऐंठे थे
एक छोटी सी तकरार हुई , फिर कैसी
कैसी बात हुई
माना मैंने की हार हुई ............
जब हार हुई तब मन रोया, अश्रु से मन
को धोया
मन को कोशा तब बार बार, और कहा की तू गया हार
हे ! मूड मन तू ग्रास बना, मेरी गर्दन का फास बना
कौशिक तब तुझसे हार गये, फिर मेरी क्या औकात हुई
माना मैंने की हार हुई ................
मासिकता की चिता जली, जो गलत थी वो
अनुभूति टली
मन को एक नयी सांत्वना मिली ,नयी
राह पे जिन्दगी चली
माना मैंने की हार हुई .........
Written
by –
Nirbhay
Raj Mishra
(Bahraich)
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